हिंदी कहानी धर्ममता युधिष्ठिर:- महाभारत के युद्ध के पश्चात शांति स्थापित हो चुकी थी युधिष्ठिर जैसे धर्मात्मा की छत्रछाया में भूलोक पर धर्म की स्थापना हो चुकी थी। अपने सभी दायित्व और कर्तव्य को पूर्ण करके अभिमन्यु के पुत्र को राजगद्दी सौंपकर एवं कृपाचार्य को राज्य का संरक्षक बनाकर महाराज युधिष्ठिर अपने चारों भाइयों और द्रोपदी के साथ हिमालय की दुर्गम पहाड़ियों को पार करते हुए मेरु पर्वत की ओर बढ़ चले।
मेरु पर्वत की कठिन चढ़ाई करते हुए एक-एक करके चारों भाई भूमि पर गिर पड़े और उनका अंत हो गया द्रोपदी भी मार्ग में अपने प्राण गवा चुकी थी, केवल युधिष्ठिर ही चोटी के निकट तक पहुंच पाए। स्वयं देवराज इंद्र सफेद घोड़ों से युक्त दिव्य रथ को लेकर सारथी सहित उन्हें लेने के लिए आए और उनसे रथ पर चढ़ जाने को कहा।
युधिष्ठिर ने अपने भाइयों तथा देवी द्रोपदी के बिना अकेले रथ पर बैठना स्वीकार नहीं किया। इंद्र के यह विश्वास दिलाने पर की वे लोग पहले ही स्वर्ग में पहुंच चुके हैं उन्होंने रथ पर जाना स्वीकार किया परंतु, इनके साथ एक कुत्ता भी था जो शुरू से ही इनके साथ चल रहा था।

देवराज इंद्र ने कहा धर्मराज कुत्ता रखने वालों के लिए स्वर्ग लोक में स्थान नहीं है। अनेक दान करने और कुआ बावड़ी आदि बनवाने का जो पुण्य होता है उसे राक्षस हर लेते हैं। आप को अमरता, मेरे सामान ऐश्वर्य, पूर्ण लक्ष्मी और बहुत बड़ी सिद्धि प्राप्त हुई है। साथ ही स्वर्गीय सुख भी सुलभ हुआ है अतः इस कुत्ते को छोड़कर आप मेरे साथ चलें।
युधिष्ठिर ने कहा महेंद्र भक्तों का त्याग करने से जो पाप होता है उसका कभी अंत नहीं होता संसार में वह ब्रह्महत्या के समान माना गया है। यह कुत्ता मेरे साथ है, मेरा भक्त है, फिर इसका त्याग मैं कैसे कर सकता हूं। देवराज इंद्र ने कहा आपने भाइयों तथा प्रिय पत्नी द्रोपदी का परित्याग करके अपने पुण्य कर्मों के फल स्वरुप देवलोक को प्राप्त किया है। फिर इस कुत्ते को क्यों नहीं छोड़ देते। सब कुछ छोड़कर अब कुत्ते के मोह में कैसे पड़ गए।
युधिष्ठिर ने कहा संसार में यह निश्चित बात है कि मरे हुए मनुष्यों के साथ ना किसी का मेल होता है ना विरोध, द्रोपति तथा अपने भाइयों को जीवित करना मेरे बस की बात नहीं है अतः मर जाने पर ही मैंने उनका त्याग किया है जीवित व्यवस्था में नहीं। शरण में आए हुए को भय देना, स्त्री का वध करना, ब्राह्मण का धन लूटना और मित्रों के साथ द्रोह करना, यह चार अधर्म एक ओर और, भक्तों का त्याग दूसरी ओर हो तो मेरी समझ में यह अकेला ही उन चारों के बराबर है।
इस समय है कुत्ता मेरा भक्त है ऐसा सोच कर इसका परित्याग मैं कदापि नहीं कर सकता। युधिष्ठिर के दृण निश्च्या को देखकर कुत्ते के रूप में स्थित धर्म स्वरूप भगवान धर्मराज प्रसन्न होकर अपने वास्तविक रूप में आ गए। वे युधिष्ठिर की प्रशंसा करते हुए मधुर वचनों में बोले तुम धन्य हो पुत्र, जो शरण में आए एक शूद्र जीव के लिए इंद्र के रथ का परित्याग कर दे धर्म उन्हें के द्वारा संभव हो सकता है। तुमने अपने धर्म परायणता के कारण भू लोक और स्वर्ग लोक दोनों में ही प्रतिष्ठा पाई। जाओ वत्स स्वर्ग लोक तुम जैसा धर्मात्मा पाकर संपन्न हो गया।