भगवान ऋषभ देव | bhagwan Rishabh Dev

भगवान ऋषभ देव | bhagwan Rishabh Dev

bhagwan Rishabh Dev:- महाराज नाभि एक महापराक्रमी और धार्मिक प्रवृत्ति के राजा थे। उनका विवाह मेरु की पुत्री मेरुदेवी से हुआ। मेरुदेवी नित्य नियम से ईश्वर और व्रत उपवास किया करती थी। राजा और रानी के पुण्य प्रताप से उनके राज्य में कोई कमी नहीं थी। लेकिन उनके जीवन में संतान सुख का आभाव था। किसी पूर्व पाप कर्म के कारण ही वे संतान के सुख से वंचित थे। 

महराज नाभि ने एक योग्य संतान के लिए महायज्ञ किया। भगवान प्रगट हुए तो राजा और रानी उनके उनकी मनोहरी छवि देख अविभूत हो गए। उन्हें पुत्र की कामना तो थी ही, उन्होंने कहा ____”प्रभु हमे आप के ही समन एक पुत्र चाहिए। इस पर भगवान बोले ______”मेरे समान दूसरा कोई हो नहीं सकता। अपने पूर्ण श्रध्या और भक्ति से संतान प्राप्ति के लिए यज्ञ किया है इसलिए मैं स्वम मेरुदेवी के माध्यम से अपने अंस रूप में अवतार ग्रहण करूंगा। यह कहकर भगाव अंतर्ध्यान होते भए। 

समय आने पर महाराज नाभि के घर एक दिव्य बालक का जन्म हुआ उनके चरणों में व्रज , अंकुश अदि के चिन्ह प्रकट होते ही दिखाई देने लगे। बालक के अनुपम सौन्दर्य को जो भी देखता मोहित हो जाता। बालक के जन्म के साथ ही महाराज नाभि के राज्य में सम्पूर्ण ऐश्वर्य उपस्थित हो गए। पिता ने इस अनुपम बालक का नाम ऋषभ रखा। महाराज नाभि के राज्य में अतुल्य ऐश्वर्य को देख इंद्र को बड़ी ईर्ष्या हुई और उन्होंने इनके राज्य में वर्षा बंद करा दी। भगवान ऋषभ देव ने अपनी योग माया से इंद्र के प्रयत्न को निष्फल कर दिया और इंद्र ने उनसे अपनी इस भूल के लिए छमा मांगी।

भगवान ऋषभ देव को विद्याध्यन के लिए गुरु गृह भेजा गया और वे थोड़े ही काल में समस्त विद्याओं में पारंगत होकर घर लौट आए। इनका विवह इंद्र की पुत्री जयंती से हुआ पुत्र को हर प्रकार से योग्य जानकर महाराज नाभि भगवान ऋषभ देव को राज्य सिहांसन पर बैठकर तपस्या के लिए बद्रिका आश्रम चले हए। जयंती के द्वारा भगवान ऋषभ देव को 100 पुत्र हुए। उनमें सबसे बड़े पुत्र का नाम  “भरत” था। उन्हीं के नाम पर हमारे देश का नाम भारत वर्ष प्रशिद्ध हुआ। 

भगवान ऋषभ देव साक्षात अपने स्वरूपानुभव में निमग्न होने के कारण रागादि दोषों से रहित, प्राणी मात्र के हित में तत्पर तथा सवभाव से सबके ऊपर दया करने वाले थे। यद्द्पि वे स्वयं धर्म के रहस्य के ज्ञाता थे, तथापि लोक संग्रह के लिए ब्राम्हणो के आदेश अनुसार शास्त्रोक्त कर्मों का संपादन करते थे। उन्होंने अपने जीवन कल 100 अश्वमेध यज्ञ किए। उनके राज्य में लोग फल की आशा त्याग कर केवल भगवान की प्रशन्नता के लिए ही कर्म किया करते थे। 

भगवान ऋषभ देव ने समस्त प्रजा के सामने अपने पुत्रों को मोक्छ धर्म का अति सुन्दर उपदेश दिया और कहा ____”तुम लोग निष्कपट बुद्धि से अपने बड़े भई भरत की सेवा करो। इससे मेरी ही सेवा होगी। ” तदन्तर भगवान ऋषभ देव अपने बड़े पुत्र भरत को राज्य भार सौपकर दिगम्बर वेश में वन को चले गए। अपने आचरण से धर्म की स्थापना करके योगाग्नि में अपने नश्वर शरीर को भस्म करके अपने लोक को प्रस्थान कर गए। जैन समाज में भगवान ऋषभ देव को आदि तीर्थंकर के रूप में आज भी पूजा जाता है। 

यह भी पढ़ें ..

  • हिंदी कहानी मुझसे बड़ा भक्त कौन?
  • पौराणिक कहानी उर्वशी का श्राप |
  • पौराणिक हिंदी कहानी परम शक्ति |