Wednesday, June 7, 2023

वसु प्रभास को श्राप के कारण बनना पड़ा था भीष्म। | Hindi story karmo ka fal

Hindi story karmo ka fal

हिंदी कहानी कर्मों का फल, एक बार आठों वसु अपनी पत्नियों के साथ वासिष्ठ जी के आश्रम पधारे। वहाँ अलौकिक शांति छाई हुई थी।

वसु और उनकी पत्निया देर तक आश्रम की वस्तुवों को देर तक देखते रहे। आश्रम की यज्ञशाला, साधना भवन, और स्नातकों के निवेश आदि सभी स्वछ, साजेहुए एवं सुव्यवस्थित देखर उन्हें बड़ी प्रशांता हुई। बड़ी देर तक वसु गण, ऋषियों के तप, ज्ञान, दर्शन और उनकी जीवन व्यवस्था पर चर्चा करते और प्रशन्न होते रहे। इसी बीच वसु प्रभास एवं उनकी पत्नी आश्रम के उद्यान भाग की और निकल आए। वहाँ ऋषि की कामधेनु नंदनी हरे पत्ते और घास चार रही थी। गया की भोली आकृति, धवल वर्ण प्रभास -पत्नी यों मन भा गए कि वे उसे पाने के लिए व्याकुल हो उठी।

उन्होंने प्रभास को सम्बिधित करते हुए कहा —— “स्वामी ! नंदनी की मृदुल दृष्टि ने मुझे मोहित किया है। मुझे इस गया में आसक्ति हो गयी है। अतएव ऐसे अपने साथ ले चलिए।

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प्रभास हसंकर बोले —- “देवी ! औरों की प्यारी वस्तुओं को देखकर लोभ और उसे अनाधिकार प्राप्त करना पाप है, उस पाप के फल से मनुष्य तो मनुष्य हम देवता भी नहीं बच सकते क्योंकि ब्रम्हा जी ने कर्मो के अनुसार ही सृस्टि की रचना की है। हम अच्छे कर्मो से ही देवता हुए है, बुराई पर चलने के लिए विवश मत करो, अन्यथा कर्म -भोग का दण्ड हमे भी भोगना होगा।

“हम देवता है इस लिए पहले ही हमर है, नंदनी का दूध तो अमृत्व के लिए है इसलिए उससे अपना कोई प्रयोजन भी तो शिद्ध नहीं होता। प्रभास ने अपनी धर्म पत्नी को सब प्रकार से समझया। पर वे न मानीं। उन्होंने कहा —- “ऐसा में अपने लिए तो कर नहीं रही। मृत्यु लोक में मेरी एक सहेली है, उसके लिए कर रही हूँ। ऋषि भी आश्रम में है नहीं, इसलिए यथाशीध्र गाय को यहाँ से ले चलिए।”

प्रभास ने फिर समझया — “देवी! चोरी और छल से प्राप्त वस्तुओं को परोपकार में लगाने से भी पुण्य लाभ नहीं मिलता। अनीति से प्राप्त धन के दान से शांति कभी नहीं मिलती इसलिए तुम्हे यह हट छोड़ देना चाहिए।”

वसु पत्नी समझाने से भी न समझी। प्रभास को आखिर गया चुरानी ही पड़ी। थोड़ी देर में अन्यत्र गए हुए वसिष्ठ आश्रम लौटे। गया को न पाकर उन्होंने सब पूछताछ की। किसी ने उसका अता पता नहीं बताया। ऋषि ने दिव्य नेत्रों से देखा तो उन्हें वसुओं की करतूत मालूम पड़ गई। देवतों के उदरत पतन पर शांत ऋषि को भी क्रोध आ गया। उन्होंने श्राप दे दिया — “सभी वसु देव शरीर त्याग कर पृथ्वी में जन्म लें।”

शाप व्यर्थ नहीं हो सकता था। देव गुरु के कहने पर उन्होंने 7 वसुओं को तो तत्काल मुक्ति का वरदान दे दिया, पर अंतिम वसु प्रभास को चिर काल तक मनुष्य के शरीर में रहकर कस्टो को सहन करना ही पड़ा।

यह आठों वसु क्रमशः महाराज शांतनु की पत्नी गंगा के उदार से जन्मे। सात सात की तो तत्काल मृत्यु हुई पर आठवें वसु प्रभास को भीष्म के रूप में जीवित रहना पड़ा। महाभारत युद्ध में उनका शरीर अर्जुन के द्वारा छेदा गया यह उसी पाप का फल था जो उन्होंने देव शरीर में किया था। इसलिए कहते है की गलती देवतों को भी गलती की छमा नहीं है। मनुष्य को तो उसका अनिवर्य फल तो भोगना ही पड़ता है। दुष्कर्म के लिए पश्चाताप करना ही पड़ता है। यह न समझे की एकांत में किया गया पाप किसी नहीं। ईश्वर सर्वव्यापक है उनसे कुछ छुपा नहीं है|

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