रावण के जन्म की कथा | Ravana ke janm ki katha

Ravana ke janm ki katha:-तेजस्वी मुनिवर अगस्त्य जी ने, प्रीति पूर्वक रघुनाथ जी से कहा ! हे राम तुम रावण के जन्म कर्म और वर प्राप्ति आदि का वृतांत सुनो मैं उनका संक्षेप में वर्णन करता हूं !

हे राम पूर्व काल में सतयुग में ब्रह्मा के पुत्र महामति विद्वान पुलस्त्य जी तप करने के लिए सुमेरु पर्वत पर गए।  वह, महा तेजस्वी मुनि श्रेष्ठ तृणबिंदु के आश्रम में रहने लगे और वहां निरंतर स्वाध्याय, प्रणव, जप में तत्पर रह तप करने लगे उस महा रमणीय आश्रम में देवता, और गंधर्वों की सुंदरी कन्याएं गाती, बजाती और हंसती हुई नाचने तथा पुलस्थ जी के तप में विघ्न डालने लगी तब महा तेजस्वी पुलस्थ जी अत्यंत क्रुद्ध होकर बोले जिस कन्या पर मेरी दृष्टि पड़ जाएगी वही गर्भवती हो जाएगी।

Ravana ke janm ki katha

 

तब उस श्राप से भयभीत होकर उनमें से कोई भी उस स्थान पर नहीं आई किंतु राज ऋषि त्रण बिंदु की कन्या ने यह वाक्य नहीं सुने इसलिए वह मुनीश्वर के सामने निर्भरता पूर्वक उन्हें देखती हुई घूमती रही इससे वह गर्भावस्था को प्राप्त होकर पीली पड़ गई। अपने शरीर को विवरण हुआ देख वह डरती हुई अपने पिता के पास आई जब उसे महातेजस्वी राज ऋषि त्रण बिंदु ने देखा तो उन्होंने ध्यान द्वारा अपनी ज्ञान दृष्टि से मुनिवर पुलस्थ जी का सब कृत्य जान लिया तब पिता त्रण बिंदु ने उस कन्या को मुनि श्रेष्ठ पुलस्थ जी को दे दिया और पुलस्थ जी ने बहुत अच्छा कह उसे स्वीकार कर लिया।

उस कन्या को अत्यंत शुश्रूषा परायण देख मुनिवर पुलस्थ जी ने उस से प्रसन्न होकर कहा, मैं तुझे दोनों वंशु मातृ पक्ष और पित्र पक्ष को बढ़ाने वाला एक पुत्र दूंगा! तब उस कन्या ने पुलस्थ जी द्वारा एक त्रिलोक विख्यात पुत्र को जन्म दिया जो पुलस्थ पुत्र ब्रह्मवत्त मुनिवर विश्रवा के नाम से प्रसिद्ध हुआ |

विश्रवा का शील स्वभाव आदि देखकर महामुनी भारद्वाज ने प्रसन्न होकर उन्हें अपनी पुत्री विवाह दी पुलस्थ नंदन विश्रवा ने त्रिलोकी में प्रतिष्ठित एक पुत्र उत्पन्न किया वह विश्रवा का पुत्र अपने पिता के समान था, तथा ब्रह्मा जी ने भी उसकी प्रशंसा की थी उसके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उसे मनोवांछित श्रेष्ठ वर देकर अखंडित धनेश्वरता दे दी। ब्रह्मा जी के वरदान से धन अध्यक्ष होकर वह उन्हीं के दिए हुए महातेजस्वी पुष्पक विमान पर चढ़कर अपने पिता से मिलने के लिए आया और उन्हें अपने तब का फल निवेदन कर प्रणाम करके बोला भगवान ब्रह्मा जी ने मुझे यह अति उत्तम वर दिया है किंतु उन परमेश्वर ने मुझे रहने के लिए कोई स्थान नहीं दिया अतः आप मुझे कोई ऐसा निश्चित स्थान बताइए जहां रहने से किसी की हिंसा ना हो तब विश्रवा ने उससे कहा !

दानवों के विश्वकर्मा ने लंका नाम की एक सुंदर पूरी राक्षसों के रहने के लिए बनाई है किंतु दानव लोग विष्णु भगवान के भय से उसे छोड़कर रसातल को चले गए हैं उस पुरी का किसी शत्रु से आक्रांत होना अति कठिन है क्योंकि वह समुद्र के बीचो-बीच बसी हुई है तुम वहीं रहने के लिए जाओ उस पुरी पर इससे पहले और किसी का अधिकार नहीं हुआ। तब धनपति कुबेर ने पिता की आज्ञा से जाकर उसी पुरी में प्रवेश किया वह अपने पिता की सहमति से उन्होंने बहुत समय तक निवास किया।

किसी समय सुमाली नामक एक मास भोजी राक्षस साक्षात लक्ष्मी देवी के समान रूपवती अपनी कुंवारी पुत्री को साथ लिए रसातल से आकर मृत्युलोक में घूम रहा था उसने भगवान कुबेर को पुष्पक विमान पर चढ़कर विचरते देखा तब महामति सुमाली राक्षसों के हित का उपाय सोचने लगा वह केकसी नाम वाली अपनी कन्या से बोला, बेटी, तेरे विवाह का समय और यौवनकाल बीता जा रहा है, हे सुंदरी, तू छोड़ देगी इस भय से तुझे कोई वरण नहीं करता अतः तेरा कल्याण हो तू स्वयं ही जाकर ब्रह्मा जी के वंश में उत्पन्न हुए मुनिवर विश्रवा को वरण कर हे शुभे उनसे तेरे इस उबेर के समान सब शोभा संपन्न महा बलवान पुत्र उत्पन्न होंगे। तब वह बहुत अच्छा कह मुनीश्वर के आश्रम पर जाकर खड़ी हो गई।  और नीचे को मुख किए हुवे चरण नख से भूमि को कुरेदने लगी।

मुनीश्वर ने उससे पूछा हे सुन्दर वर्ण वाली तू कौन और किस की कन्या है तथा यहां किस लिए आई है। केकसी ने हाथ जोड़कर कहा ब्राह्मण आप ध्यान द्वारा सभी कुछ जान सकते हैं तब मुनी ने ध्यान द्वारा सब बात जानकर उससे कहा | मैं तेरी अभिलाषा जान गया तू मुझसे पुत्रों की इच्छा करती है किंतु है सुंदरी तू इस दारुण समय में आई है इसलिए तेरे पुत्र भी दो महा भयंकर राक्षस होंगे !

उसने कहा हे मुनि श्रेष्ठ क्या आपके द्वारा भी ऐसे पुत्र होने चाहिए। तब मुनीश्वर ने उससे कहा उनके पश्चात तेरे जो पुत्र होगा वह महा बुद्धिमान परम भगवत भक्त श्री संपन्न और एकमात्र राम भक्ति में ही तत्पर होगा।  मुनीश्वर के ऐसा कहने पर उसने यथा समय 10 सिर और 20 भुजाओं वाले अति भयंकर रावण को जन्म दिया उस राक्षस के जन्म लेते ही पृथ्वी कांपने लगी और संसार के नास के समस्त कारण उपस्थित हो गए। उसके पश्चात महा पर्वत के समान बड़े डील डौल वाला कुंभकरण उत्पन्न हुआ।  फिर रावण की बहन शूर्पणखा का जन्म हुआ और उसके पीछे अति शांत चित्रों में मूर्ति विभीषण उत्पन्न हुए जो अत्यंत स्वाध्याय शील मिता हारी और नित्य कर्म परायण थे।

अत्यंत दारुण दुष्ट आत्मा कुंभकरण संतुष्ट चित्र ब्राह्मण और ऋषियों के समूहों को भक्षण करता हुआ पृथ्वी पर घूमने लगा तथा संपूर्ण लोगों को भयभीत करने वाला महाबली रावण भी प्राणियों का नाश करने वाले रोग के समान त्रिलोकी को नष्ट करने के लिए बढ़ने लगा। 

हे राम आप सब के अंतः कारणों में विराजमान हैं और साक्षी रूप से अपनी ज्ञान दृष्टि द्वारा सबके हृदय स्थित विचारों को भली-भांति जानते हैं आप परम श्रेष्ठ नित्य प्रबुद्ध और निर्मल हैं अपनी महिमा में स्थित रहने वाले परमेश्वर आपने लीला से ही यह मनुष्य रूप धारण किया है किंतु आप माया के गुणों से लिप्त नहीं होते आपने लीला वर्ष मुझसे पूछा है इसीलिए मैं यह राक्षसों का जन्म वृतांत सुना रहा हूं, हे राम मैं आपको एक मात्र आनंद, अचिंत्य शक्ति चिनमात्र अक्षर अजन्मा और आत्मबोध स्वरूप जानता हूं तथा माया के द्वारा अपने स्वरूप को गुप्त रखने वाले आप में भजन द्वारा परायण हो मैं मूड भी आपकी कृपा से स्वच्छंद विचरता रहता हूं।

अगस्त जी के इस प्रकार कहने पर श्री रघुनाथ जी ने अगस्त जी से हस कर कहा यह संपूर्ण संसार माया माय है क्योंकि वास्तव में यह मुझ से पृथक नहीं है हे मुने: ने आप मेरे गुण कीर्तन को ही इस संसार में संपूर्ण पापों का नाश करने वाला जानिए।

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