Tuesday, May 30, 2023

पौराणिक कहानी पृथु और अर्चि

Prathu and archi Story in hindi: जब पृथ्वीपालक महाराज वेणु निसंतान ही मृत्यु के मुख में समा गए तो धरा  राजा विहीन हो गई । बिना सम्यक राजा के सम्पूर्ण भूमण्डल पर अराजकता फैल गई । दुराचारियों और पापियों पर अंकुश लगाने वाला कोई नहीं था , इसलिए पृथ्वी पर चारों और कष्ट और पीड़ा से चीखते – चिल्लाते लोग नजर आने लगे ।

पीड़ित मानवों की पुकार पर ऋषियों ने अपने योग बल से एक दिव्य पुरुष और एक दिव्य स्त्री को प्रकट किया । उस दिव्य पुरुष का नाम पृथु और स्त्री का नाम अर्चि था। ऋषियों ने पृथु को राज सिंहासन पर बिठाकर उनका अभिषेक किया । पृथु अर्चि से विवाह करके राजा के रूप में प्रजा का पालन करने लगे ।

पृथु बड़े धर्मात्मा और बड़े पुण्यात्मा थे । वे थे तो मानव , किंतु परमात्मा के अंश थे । उनके अंग – अंग में दैवी ज्योति थी । वे शौर्य के प्रतीक थे । वे जब धनुष – बाण लेकर रथ पर बैठते थे । तो उनके तेज और प्रताप को देखकर इंद्र भी भयभीत हो उठते थे ।

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प्रभात के पश्चात का समय था । महाराज पृथु पूजा के पश्चात आसन से उठे ही थे कि उनके कानों में आर्त पुकार पड़ी– “ रक्षा कीजिए महाराज , हमें भूख की ज्वाला में जलने से बचाइए।”

महाराज पृथु ने बाहर निकलकर देखा , अनेक स्त्री – पुरुष खड़े थे , आर्त वाणी महाराज पृथु ने एकत्र स्त्री – पुरुषों की ओर देखते हुए कहा- ” क्या बात है प्रजाजनो , आपको कौन – सा दुख है ? किस शत्रु ने आपको पीड़ा पहुंचाई है ? ”

एकत्र स्त्री – पुरुषों ने निवेदन किया- ” महाराज , धरा ने अपने सारे अन्न और अपनी सारी औषधियां अपने भीतर छिपा रखी हैं । हमारे खेतों में न अन्न पैदा होता है , न वृक्षों में फल लगते हैं । बीमार होने पर हमें औषधियां भी नहीं मिलतीं । हम और हमारे पशु अन्न और जल के बिना अपना दम तोड़ते जा रहे हैं । हमारी रक्षा कीजिए ।

प्रजा की दुखकथा को सुनकर पृथु का हृदय आकुल हो उठा । उन्होंने स्नेहमयी वाणी में प्रजाजनों को आश्वस्त करते हुए कहा- – ” प्रियजनो, अपने – अपने घर जाइए । मेरे रहते हुए आपको कष्ट नहीं होने पाएगा । आप देखेंगे कि चरित्री शीघ्र ही अपने अन्न और औषधियों का भंडार खोल देगी । “

महाराज पृथु ने प्रजाजनों को आश्वस्त करने के पश्चात अपना धनुष और वाण उठा लिया । उन्होंने धनुष पर बाण रखकर , रत्नगर्भा धरित्री की ओर संधान किया । धरा व्याकुल हो उठी । वह गाय के रूप में पृथु के सामने प्रगट हुई ।

गाय रूपी धरा महाराज पृथु के रौद्र रूप को देखकर भयभीत होकर भाग चली । महाराज पृथु ने धनुष पर बाण चढ़ाए हुए उसका पीछा किया । पृथ्वी रूपी गाय भय से कांपती हुई तीनों लोकों में गई , किंतु तीनों लोकों में उसे ऐसा कोई नहीं मिला जो अपनी शरण में लेकर उसे अभय प्रदान करता।

जब तीनों लोकों में कोई भी गाय रूपी धरित्री को अपनी शरण में नहीं ले सका , तो विवश होकर वह खड़ी हो गई । उसने विनीत वाणी में पृथु से पूछा- “ महाराज , आखिर आप मेरा पीछा क्यों कर रहे हैं ? मैं जानना चाहती हूं कि आप मुझे क्यों मारना चाहते हैं ? “

महाराज पृथु ने उत्तर दिया- ” पृथ्वी ! तुमने अपने अनाज और अपनी औषधियों को अपने भीतर छिपाकर पाप किया है । अन्न और औषधियों के अभाव में मेरी प्रजा मर रही है । तुम अपने भीतर से अनाजों और औषधियों को मुक्त करो । नहीं तो तुम्हें मेरे क्रोध का भाजन होना पड़ेगा । “

गाय रूपी धरा ने निवेदन किया- “ महाराज ! मैं अनाजों और औषधियों को अपने भीतर छिपा न लेती तो क्या करती । हमारे तरह – तरह के अनाजों को खाकर और अमृत के समान सुस्वादु जल को पीकर मनुष्य पाखंडी और अधर्मी बनता जा रहा था। मनुष्य को दंड देने के लिए ही मैंने ऐसा किया है । यदि आप चाहते हैं , मैं अपने अनाजों और औषधियों का भंडार खोल दूं तो बछड़े का प्रबंध करके मुझे दुहने का प्रयत्न कीजिए ।

धरित्री के नम्रता से भरे हुए वचनों को सुनकर महाराज पृथू का क्रोध शांत हो गया । उन्होंने स्वयंभू मनु को बछड़ा बनाकर गाय रूपी धरा को दुह लिया उनके दुहने से पुनः खेतों में अनाज पैदा होने लगा , पुनः पीने के लिए शीतल जल मिलने लगा और पुनः रोगियों को औषधियां भी मिलने लगी ।

महाराज पृथू के पश्चात ऋषियों , ब्राह्मणों और दैत्यों ने भी अपने – अपने ढंग से गाय रुपी धरित्री को दुहा। फलतः तरह – तरह की वस्तुएं प्राप्त हुई और प्राणियों का काम – काज सुंदरता के साथ चलने लगा और उनके जीवन का निर्वाह होने लगा ।

जब पृथ्वी का लोक तरह – तरह के धन -धान्यों से भर गया तो चारों ओर पृथ के यश का गान होने लगा । मनुष्य तो यश का गान करने ही लगे , देवता और दैत्य भी पृथु के यश का गान करने लगे । महाराज पृथु जब तीनों लोकों में सर्वपूज्य हो गए , तो उन्होंने अश्वमेध यज्ञ करने का विचार किया । उन्होंने एक के बाद एक निन्यानवे अश्वमेध यज्ञ किए । जब सौवां यज्ञ करने लगे तो देवराज इंद्र के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हो उठी । उन्होंने सोचा- ‘ यदि सौंवा यज्ञ भी निर्विघ्न समाप्त हो गया तो कहीं पृथु मेरे इंद्रलोक पर अपना अधिकार न स्थापित कर लें । अतः इंद्र ने सौवें यज्ञ में बाधा डालने का निश्चय किया ।

महाराज पृथु ने अपने कुमार के संरक्षण में सौवें यज्ञ का घोड़ा छोड़ दिया । घोड़ा पृथ्वी के देश – देशों में भ्रमण करने लगा । पृथु कुमार पूर्ण संलग्नता के साथ घोड़े की देख – रेख कर रहे थे । फिर भी अवसर पाकर इंद्र ने घोड़े को चुरा लिया । घोड़े के चुराए जाने पर पृथु कुमार चिंतित हो उठे । वे इधर – उधर घोड़े की खोज करने लगे । सहसा उन्हें एक मनुष्य के साथ घोड़ा दिखाई पड़ा । वह मनुष्य कोई और नहीं , स्वयं इंद्र थे , जो वेश बदले हुए थे । पृथु कुमार ने उस मनुष्य को युद्ध करने के लिए ललकारा , किंतु वह मनुष्य युद्ध न करके घोड़े को छोड़कर भाग चला । पृथु कुमार घोड़े को लेकर राजधानी की ओर चले , किंतु इंद्र ने बीच में ही फिर घोड़े को चुरा लिया । पृथु कुमार ने इंद्र को युद्ध करने के लिए ललकारा , किंतु इंद्र युद्ध न करके पुनः अदृश्य हो गए ।

पृथु कुमार घोड़े को लेकर राजधानी लौट गए । उन्होंने इंद्र के द्वारा दो को चुराए जाने की घटना अपने पिता से कह सुनाई । पृथु इंद्र पर कुपित हो उठे । उन्होंने इंद्रलोक पर आक्रमण करके इंद्र को मार डालने का निश्चय किया। पृथु के इस निश्चय से तीनों लोकों में हलचल मच गई । आखिर , आकाशवाणी हुई— ‘ महाराज पृथु , आप इंद्र को मार डालने का अपना निश्चय छोड़ दें । इंद्र कोई अन्य नहीं , श्रीहरि का ही अंश है। आप सौवा यज्ञ न करें । आपको सो यज्ञ करने का जो फल मिलता , वह फल निन्यानवे यज्ञ से ही प्राप्त होगा । ‘

महाराज पृथु ने आकाशवाणी को सुनकर सौवें यज्ञ को पूर्ण करने का प्रयत्न छोड़ दिया ये बहुत दिनों तक राज्य करते रहे , प्रजा को सुख प्रदान करते रहे । तत्पश्चात अपने पुत्र को राज्य देकर वन में चले गए और तप करके परमलोक के अधिकारी बने । महाराज पृथु के नाम पर ही रत्नगर्भा धरित्री का एक नाम पृथ्वी पड़ा।

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